दो वृक्ष – दो मार्ग
परमेश्वर को प्राप्त करने के दो तरीके – कार्य और अनुग्रह
प्रस्तावना
"और यहोवा परमेश्वर ने भूमि से सब भाँति के वृक्ष, जो देखने में मनोहर और जिनके फल खाने में अच्छे हैं उगाए, और वाटिका के बीच में जीवन के वृक्ष को और भले या बुरे के ज्ञान के वृक्ष को भी लगाया।...तब यहोवा परमेश्वर ने आदम को यह आज्ञा दी, कि तू वाटिका के सब वृक्षों का फल बिना खटके खा सकता है: पर भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना: क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाए उसी दिन अवश्य मर जाएगा।"
– उत्पत्ति २:९,१६-१७
"वाटिका के मध्य में दो वृक्ष थे। एक था - जीवन का वृक्ष, तथा दूसरा था - भले और बुरे के ज्ञान का वृक्ष। परमेश्वर ने आदम को बताया कि वह वाटिका के किसी भी वृक्ष से खा सकता है किन्तु भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष से वह कदापि नहीं खा सकता। क्योंकि ऐसा करने से वह निश्चय ही मर जाएगा।"
– “आशा” अध्याय २
ध्यान से देखें और विचार करें
परमेश्वर की कहानी में अब तक हमने कई अद्भुत घटनाएँ तो देखी किंतु किसी प्रकार का संघर्ष नहीं देखा। परमेश्वर ने आदम और हव्वा को रचा और उन्हें एक सुंदर वाटिका में रखा जहाँ उनके पास उनकी आवश्यकतानुसार सबकुछ था। वाटिका के मध्य दो वृक्ष थे। एक वृक्ष जीवनदायक था और दूसरा मृत्युदायक; पहले आत्मिक मृत्यु और फिर अंततः शारीरिक मृत्यु।
इतिहास में हमेशा से ही बाइबल के विद्वानों ने इन दोनों वृक्षों के अर्थ पर गहन विचार किया है। अधिकांश विद्वान इस बात से सहमत हैं कि दोनों वृक्ष परमेश्वर तक पहुँचने के दो बिलकुल अलग मार्ग दर्शाते हैं|1 ऐसा माना जाता है कि अच्छे और बुरे के ज्ञान का वृक्ष संतुष्टी पाने और परमेश्वर के साथ एक सही सम्बन्ध में होने के लिए, अपने बल से किए गए मनुष्य के प्रयत्न को दर्शाता है - प्रायः ज्ञान प्राप्त करने के द्वारा और जो स्वयं की दृष्टि में सही है, वही करने के द्वारा। बाइबल कहती है कि इस मार्ग का अंत मृत्यु है।2
मगर जीवन का वृक्ष, धर्मशास्त्री जॉन केल्विन के अनुसार, मनुष्य के लिए एक अनुस्मारक है कि "वह अपनी समझ से नहीं जीवित रहता हैं बल्कि परमेश्वर की करुणा से जीवित रहता है; और यह भी कि जीवन अपने आप से नहीं होता है, बल्कि परमेश्वर से निकलता है।"3 जीवन का वृक्ष उस जीवनदायक कृपादृष्टि को दर्शाता है जो परमेश्वर से प्रवाहित होती है - एक ऐसी कृपादृष्टि जो न तो हमारी किसी योग्यता के कारण हुई है और न ही जिसे हम अर्जित कर सकते हैं, लेकिन विनम्रता और धन्यवाद के साथ हम उसे केवल प्राप्त कर सकते हैं।
पिछले अध्याय में हमने समझा कि मनुष्य का उद्देश्य परमेश्वर की महिमा करना और सर्वदा के लिए उसमें आनंद पाना है। हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि हमारा इस उद्ददेश्य को पूर्ण करना इस बारे में इतना नहीं है कि हम उसके लिए क्या करते हैं, बल्कि उसके साथ हमारे संबंध के परिणामस्वरूप वह जो हमारे लिए करता है, उस बारे में है। यदि आपको लगता है कि इस पाठ का विषय पिछले पाठ से मिलता-जुलता है, तो आप सही हैं। स्वयं पर निर्भरता और परमेश्वर पर निर्भरता के बीच का अंतर एक ऐसा विषय है जो परमेश्वर की कहानी में प्रायः दिखाई देता है।
पूछें और मनन करें
लोग अपने जीवन में और परमेश्वर के संबंध में इतना अधिक संघर्ष क्यों करते हैं? क्यों इतने सारे लोग जीवन के वृक्ष के बजाय अच्छे और बुरे के ज्ञान के वृक्ष को चुनते हैं? अक्सर ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उन्होंने परमेश्वर की जीवनदायक कृपादृष्टि के उस सुसमाचार को कभी सुना ही नहीं जो आप अभी सुन रहे हैं या फिर शायद उन्होंने सुना हो और उसे परमेश्वर से ग्रहण करने के लिए अनिच्छुक या असमर्थ हों। यहाँ तक कि वे लोग भी जो सचमुच परमेश्वर को जानने और उसका पालन करने की इच्छा रखते हैं, वे लोग भी ज्ञान के वृक्ष में से खाने के जाल में फँस जाते हैं।
आज के पाठ के दो वृक्षों पर विचार करते हुए, स्वयं से यह प्रश्न पूछें, "मैं किस वृक्ष में से खा रहा हूँ?"
निर्णय लें और करें
जीवन के वृक्ष में से खाना परमेश्वर के साथ एक व्यक्तिगत संबंध स्थापित करने के साथ आरंभ होता है। यदि अभी तक आपका परमेश्वर के साथ ऐसा घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंध नहीं है जो इस जीवन में और इसके परे भी आपके लिए उसकी भलाई के बारे में निडरता से भरोसा करने की अनुमति दे, तो अभी थोड़ा समय निकालें और इस अभ्यास मार्गदर्शिका के 'परमेश्वर को जानना' खंड में जाएँ और पढ़ें। परमेश्वर चाहता है कि आप उसे जानें, और ऐसा करने के लिए उसने एक मार्ग तैयार किया है।
यदि परमेश्वर के साथ आपका एक व्यक्तिगत संबंध पहले से ही है परंतु फिर भी आप स्वयं की सामर्थ्य से जीवन जीने के जाल में फँस गए हैं, तो अभी कुछ समय निकालें और उन बातों की पहचान करें जो आपको परमेश्वर की उस अति "जीवन देने वाली कृपा" का अनुभव करने से रोक रहीं हैं जो परमेश्वर आपको देना चाहता है। अतिरिक्त सहायता के लिए 'परमेश्वर में बढ़ना' खंड में जाएँ और पढ़ें।
Footnotes
1Watchman Nee, “The Choice That Confronted Adam” from his book The Normal Christian Life. Copyright Angus Kinnear 1961, Kingsway Publications, Eastbourne, England. (http://www.ccel.org/ccel/nee/normal.xi.iii.html). Retrieved October 4, 2006.
2Romans 8:5-13
3John Calvin, Institutes of the Christian Religion 1.1.2