परमेश्वर के प्रेम और न्याय का संगम
क्रूस पर उसका न्याय संतुष्ट हुआ और उसका प्रेम पूर्ण हुआ।
प्रस्तावना
"लकड़ी पर यीशु को कीलों से ठोंकने के बाद उन्होंने उसे मरने के लिए ऊपर उठाया। उसके ऊपर उन्होंने एक तख्ती लटकाई जिस पर लिखा था कि जो क्रूस पर टंगा है वह यहूदियों का राजा है। धार्मिक अगुओं को इस पर आपत्ति हुई लेकिन सिपाहियों ने राज्यपाल के आदेश पालन किया। और तख्ती वहीं लटकी रही। किसी ने उसका मजाक उड़ाया तो दूसरे दु:खी थे। लेकिन इस सब बातों के बावजूद यीशु ने किसी से बुरा शब्द नहीं कहा। बल्कि उसने अपने स्वर्गीय पिता से कहा, "हे पिता! इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं!" तीन घंटे तक पूरे देश में अंधेरा छाया रहा। यह कितना अर्थहीन प्रतीत हो रहा था! और फिर भी इसका अर्थ कितना सटीक था!
परमेश्वर सच्चा और धर्मी और पवित्र है। वह उस दुष्टता को, जो शैतान के द्वारा इस संसार में आई, स्वीकार नहीं सकता। न ही वह उस पाप को स्वीकार सकता है जो आदम के द्वारा मानव जाति में आया। क्योंकि ऐसा करना उसके चरित्र को भंग करना और उसके स्वभाव को दूषित करना होगा।
परंतु परमेश्वर प्रेम भी है। उसने लोगों को इसलिए रचा कि वह उनसे प्रेम करे और उनका प्रेम पाए। परमेश्वर द्वारा लोगों को उनके अंदर की दुष्टता के कारण दण्डित करने का अर्थ होगा उसके प्रेम के विषय-पात्रों का ही नष्ट हो जाना।
यह ईश्वरीय अनुपात की दुविधा थी। परंतु उसकी कहानी के अनुसार इस घड़ी की योजना सृष्टि के पहले से पहले से ही बना दी गई थी और हर समय में, इसकी भविष्यवाणी की गई।
क्रूस पर यीशु ने हमारे पापों को अपने ऊपर ले लिया। उसने हमारे पापों का दाम चुकाया। वह हमारा विकल्प बन गया। क्रूस पर परमेश्वर का न्याय संतुष्ट और उसका प्रेम सिद्ध हुआ।"
– "आशा" अध्याय १०
ध्यान से देखें और विचार करें
दुनियाभर में लाखों लोग क्रूस को एक आभूषण के रूप में पहनते हैं। किंतु वास्तव में क्रूस मृत्यु का एक साधन है, आभूषण नहीं।1 इब्रानी धार्मिक अगुवों, राज्यपाल और हेरोदेस नामक एक इब्री राजा द्वारा "कार्यवाही" किए जाने के पश्चात... अधमरा होने तक पीटे जाने के पश्चात... एक बेकाबू और उतेज़ित भीड़ द्वारा अस्वीकार किए जाने के पश्चात... यीशु को एक क्रूस पर चढ़ाने के लिए गुलगुता (खोपड़ी का स्थान) नामक स्थान पर ले जाया गया।
यद्यपि मत्ती, मरकुस, लूका और यूहन्ना के अंतिम अध्यायों में यीशु के क्रूस के इर्द-गिर्द घटी घटनाओं का वर्णन किया गया है, तथापि चाहे कितने ही शब्द क्यों न लिख दिए जाएँ, परन्तु उस क्रूस का अर्थ और यीशु ने क्रूस पर जो सिद्ध किया है, उसका वर्णन या चित्रण पूर्ण रीति से नहीं कर पाएँगे। उसने जो किया वह भयानक और फिर भी सुंदर, आपत्तिजनक और फिर भी पवित्र, सामान्य और फिर भी शोभायमान, सरल और फिर भी उत्कृष्ट था।
यदि आपने पहले से ऐसा नहीं किया है, तो उपर्युक्त "आशा" के अंश को ध्यान से पढ़ें। "यह ईश्वरीय अनुपात की दुविधा थी" वाक्यांश पर विचार करें। शब्दकोश के अनुसार दुविधा हिन्दी भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ है - ऐसी मनःस्थिति जिसमें दो या कई बातों या विकल्पों में से किसी बात का निश्चय न हो रहा हो; एक ऐसी समस्या जो समाधान को चुनौती देती प्रतीत होती है। यदि आप उन दृष्टिगोचर शक्तियों के मुखोटे को खींच सकें जो इस संसार पर राज करती प्रतीत होती हैं (अर्थात् लोगों की शक्ति और प्रकृति की शक्ति), तो आप उनके पीछे छुपी दो अदृश्य शक्तियों को देख पाएँगे, जो इतिहास के प्रवाह को वैसा आकार देती आ रही हैं जैसा कि हम देखते हैं। पहली है- लोगों के प्रति परमेश्वर का प्रेम और दूसरी है- लोगों का न्याय करने की उसकी धार्मिकता से भरी ज़िम्मेदारी। यह दो महान शक्तियाँ एक दूसरे के लिए असंगत प्रतीत होती हैं - "एक ईश्वरीय अनुपात की दुविधा।" फिर भी, यीशु के क्रूस पर इन दोनों महान शक्तियों का सदा सर्वदा के लिए मेल हो गया!
पूछें और मनन करें
- यद्यपि शब्द यीशु के क्रूस के अर्थ का वर्णन या चित्रण पूर्ण रीति से नहीं कर पाएँगे, क्रूस का अर्थ आपके लिए क्या है? कभी-कभी अपने विचारों को शब्दों में पिरोने से हमें बातें समझने में सहायता मिलती है।
- गलातियों 6:14, में, प्रेरित पौलुस लिखता है कि वह केवल एक बात पर घमंड करता है और वह है, यीशु मसीह का क्रूस। आपको क्या लगता है कि उसने ऐसा क्यों लिखा? आपको क्या लगता है उसका क्या तात्पर्य था?
निर्णय लें और करें
इस पाठ और इसके आरंभिक उद्घृत को पढ़ने के बाद, "ईश्वरीय अनुपात की दुविधा" को परमेश्वर की दुविधा के रूप में देखा जा सकता है। परंतु क्योंकि परमेश्वर, परमेश्वर है, इसलिए वह स्वयं का खंडन नहीं कर सकता। उसके साथ कोई दुविधा नहीं है। यह दुविधा तो हमारी है, और यह ईश्वरीय अनुपात में है, जिसका अर्थ है कि केवल परमेश्वर ही इसका समाधान कर सकता है। और यही कार्य उसने क्रूस पर सिद्ध किया।
यीशु के क्रूस पर दोनों महान शक्तियों, परमेश्वर के प्रेम और न्याय, का सदा सर्वदा के लिए मेल हो गया। परंतु हम में से प्रत्येक को व्यक्तिगत रूप से, विश्वास और भरोसे के द्वारा, अपने स्वयं के जीवन में उस मेल-मिलाप को अपनाने के लिए क्रूस के पास जाना चाहिए। जो लोग क्रूस को अस्वीकार करते हैं, उनके लिए ये दो महान शक्तियाँ सदा के लिए अनसुलझी और असंगत बनी रहेंगी। क्या आप क्रूस के पास गए हैं? यदि नहीं, तो तुरंत इस अध्ययन मार्गदर्शिका के अंत में दिए गए 'परमेश्वर को जानना' खंड में जाएँ और पढ़ें।
अधिक अध्ययन के लिए पढ़ें
• John Piper, Christ Died for our Sins That We Might Die to Sin. (A sermon delivered by John Piper on June 26, 1994. © Desiring God, 2006). (http://www.desiringgod.org/ResourceLibrary/Sermons/ByDate/1994/878_Christ_Died_for_Our_Sins_That_We_Might_Die_to_Sin/), Retrieved November 9, 2006.
• John Piper, The Hour Has Come for the Son of Man to be Glorified. (A sermon delivered by John Piper on March 31, 1985. © Desiring God, 2006). Retrieved November 9, 2006.
• John Piper, I Thirst. (A sermon delivered by John Piper on April 5, 1985. © Desiring God, 2006). (http://www.desiringgod.org/ResourceLibrary/Sermons/ByDate/1985/485_I_Thirst/). Retrieved November 9, 2006.
Footnotes
1A. W. Tozer, Gems from Tozer: Selections from the Writings of A. W. Tozer. (Christian Publications, June 1969, Chapter 7). “The old cross slew men; the new cross entertains them. The old cross condemned; the new cross amuses. The old cross destroyed confidence in the flesh; the new cross encourages it.”